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गौरी लंकेश की हत्या एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना

ब्रज की दुनिया
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मित्रों, पता नहीं क्यों जबसे कट्टर हिन्दूविरोधी और हिन्दू संस्कृति से घनघोर घृणा करनेवाली कथित पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई है तभी से मुझे ऐसा लगता है कि उनको उनके किसी अपने आदमी ने ही मारा है. क्योंकि मारनेवाले ने उनको आराम से उनके घर के भीतर जाकर मारा. अगर वो अजनबी होता तो लंकेश ने उसे घर में घुसने ही नहीं दिया होता. उनके भाई को शक है कि लंकेश ही हत्या नक्सलियों के की है क्योंकि उन्होंने ऐसा करने की धमकी दे रखी थी. गौरी के भाई के मुताबिक़- गौरी नक्सलियों को मुख्य धारा में लाने की मुहिम की अगुवाई कर रही थीं. कुछ नक्सलियों को मुख्य धारा से जोड़ने में वह सफल भी हुई थीं, जिसकी वजह से वह नक्सलियों के निशाने पर थीं और उन्हें लगातार धमकी भरी चिट्ठी और ईमेल आते थे.
मित्रों, शक का कोहरा इसलिए और भी गहरा हो जाता है क्योंकि हत्यारे का वीडियो फूटेज मौजूद है लेकिन पुलिस के हाथ अब तक खाली हैं. इससे पहले ३० अगस्त, २०१५ को मारे गए कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या किसने की और क्यों की का पता भी आज तक सिद्धारमैया की पुलिस नहीं लगा पाई है.
मित्रों, ऐसा कैसे हो सकता है कि पुलिस के हाथों में हत्यारे का सीसीटीवी फुटेज हो फिर भी वो हत्यारों तक नहीं पहुँच पाए? क्या पुलिस इन दोनों हत्याओं में शामिल लोगों को जानबूझकर पकड़ना ही नहीं चाहती है? क्या इस हत्या के पीछे स्वयं कांग्रेस का हाथ है क्योंकि लंकेश ने इन दिनों अपनी कलम का मुंह उसके मंत्रियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार की तरफ कर दिया था? तो क्या कांग्रेस पूरे होशो-हवास में हत्या की राजनीति कर रही है?
मित्रों, पुलिस और कानून-व्यवस्था पूरी तरह से राज्य सरकार का विषय है ऐसे में एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों की लगातार हत्या होना और उनका उद्भेदन दो साल बाद तक भी नहीं हो पाना सर्वप्रथम राज्य सरकार की क्षमता पर ही सवालिया निशान लगाता है. मैं कर्नाटक के मुख्यमंत्री से मांग करता हूँ कि या तो वे इन दोनों हत्याओं का खुलासा करें अन्यथा पदत्याग करें क्योंकि उनकी पुलिस जब इतने हाईप्रोफाईल मामलों का रहस्योद्घाटन नहीं कर पाती तो आम आदमी से जुड़े मामलों में क्या खाक कारवाई करती होगी.
मित्रों, अगर राज्य पुलिस अक्षम है तो इसका मतलब यह नहीं कि इन्साफ को दम घुट जाए. वैसे भी लंकेश का भाई कह चुका है कि उसको राज्य पुलिस पर भरोसा नहीं है और मामले की जाँच सीबीआई को करनी चाहिए. लेकिन क्या इसके लिए राज्य सरकार तैयार होगी? नहीं होती है तो क्या वो खुद को शक के कटघरे में नहीं डाल लेगी?
मित्रों, अंत में मैं लेखकों और पत्रकारों से किसी तरह की हिंसा का विरोध करता हूँ. जिसको बहस करनी है करे हम खुद भी चौबीसों घंटे तैयार हैं. कोई अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा फायदा उठाता है तो उसके ऊपर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए जैसे इन दिनों अरुण जेटली केजरीवाल के खिलाफ कर रहे हैं लेकिन हिंसा नहीं होनी चाहिए.

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