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बिहार में फिर से बड़े घोटाले का ‘सृजन’

ब्रज की दुनिया
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मित्रों, हो सकता है कि आपने भी बचपन में आवेदन -प्रपत्र या फोटो सत्यापित करने के लिए किसी स्कूल या कॉलेज के प्रधानाचार्य की मुहर बनवाई होगी और खुद ही हस्ताक्षर करके काम चला लिया होगा. ऐसा करने वालों में से कुछ तो अब नौकरी में भी होंगे. लेकिन क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि कोई किसी राजपत्रित अधिकारी का नकली हस्ताक्षर करके और नकली मुहर लगाकर १००० करोड़ की राशि बैंक से निकाल जाए या अपने चहेते के खाते में स्थानांतरित कर दे? शायद नहीं लेकिन जो बात दुनिया में कहीं नहीं होती वो बिहार में होती है तभी तो बिहार बर्बादी का दूसरा नाम है.


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मित्रों, बिहार आकर शब्द भी पथभ्रष्ट हो जाते हैं. अब सृजन शब्द को ही लीजिए. इसका अर्थ होता है निर्माण. कहने का मतलब यह कि सृजन एक सकारात्मक शब्द है. लेकिन बिहार में इसका दुरुपयोग घोटाला सृजित करने के लिए हुआ है और इस तरीके से हुआ है कि पूरी दुनिया सन्न है। भ्रष्टाचार की सत्यनारायण कथा इस प्रकार है कि स्वयंसेवी संस्था सृजन की संचालिका मनोरमा देवी एक विधवा महिला थी। जिसके पति अवधेश कुमार की मौत 1991 मे हो गई जो रांची में लाह अनुसंधान संस्थान में वरीय वैज्ञानिक के रूप में नौकरी करते थे। जिसके बाद मनोरमा देवी अपने बच्चे को लेकर भागलपुर चली आई और वही एक किराए के मकान में रह कर अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करने लगी।


गरीबी से मजबूर विधवा ने पहले ठेले पर कपड़ा बेचने का काम शुरू किया फिर सिलाई का और धीरे-धीरे उसका काम इतना बढ़ने लगा कि उसमें और भी कई महिलाएं शामिल हो गई। जिसके बाद 1993-94 में मनोरमा देवी ने सृजन नाम की स्वयंसेवी संस्था की स्थापना की। मनोरमा देवी की पहचान इतनी मजबूत थी कि तमाम बड़े अधिकारी से लेकर राजनेता तक उनके बुलावे पर दौड़ते हुए पहुंच जाते थे। मनोरमा देवी ने अपने समूह में लगभग 600 महिलाओं का स्वयं सहायता समूह बनाकर उन्हें रोजगार से जोड़ा।


मित्रों,फिर शुरू हुआ हेराफेरी का खेल। मनोरमा देवी ने सहयोग समिति चलाने के लिए भागलपुर में एक मकान 35 साल तक के लिए लीज पर लिया। मकान लेने के बाद सृजन महिला विकास समिति के अकाउंट में सरकार के खजाने से महिलाओं की सहायता के लिए रुपए आने शुरू हो गए। जिसके बाद सरकारी अधिकारियों और बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत से पैसे की हेराफेरी शुरू हो गयी।


देखते-देखते बेवजह लगभग 1000 करोड़ से ज्यादा पैसा समिति के अकाउंट में डाल दिया गया और इसके ब्याज से अधिकारी-कर्मचारी मालामाल होते चले गए। दिखावे के लिए इस संस्था के द्वारा पापड़, मसाले, साड़ियां और हैंडलूम के कपड़े बनवाए जाते थे और ‘सृजन’ ब्रांड से बाजार में बेचे जाते थे. लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पापड़ और मसाले बनाने का धंधा केवल दुनिया को गुमराह करने के लिए था. संस्था ने घोटाले के पैसे को बाजार में लगाया, साथ ही रियल एस्टेट में भी लगाया. इन पैसों से लोगों को 16% ब्याज दर पर लोन भी मुहैया कराया गया.


मित्रों, अपनी जिंदगी के 75 साल गुजारने के बाद भ्रष्टाचार की देवी मनोरमा देवी की इसी साल फरवरी में मौत हो गई। उसकी मौत के बाद उसके बेटे अमित और उसकी पत्नी प्रिया ने महिला समिति के कामकाज देखना शुरू कर दिया। जब यह मामला का पर्दाफाश हुआ दोनों फरार हो गए फिलहाल पुलिस उनकी तलाश कर रही है। 1995 से लेकर 2016 तक चले इस घोटाले की अधिकारियों द्वारा जांच पड़ताल की जा रही है और जल्द ही इस लूट में शामिल सारे लोगों को बेनकाब करने का दावा किया जा रहा है।


मित्रों, ऐसा नहीं है कि बिहार में भागलपुर ही एकमात्र अभागा जिला है बल्कि बिहार में जहाँ कहीं भी कोई सरकारी योजना चल रही है, सरकारी फंड का व्यय हो रहा है या सरकारी काम चल रहा है वहां घोटाला है,मनमानी है. इसलिए आवश्यक है कि न केवल भागलपुर में घोटाले के दौरान पदस्थापित सारे कर्मचारियों और अधिकारियों की संपत्तियों की गहनता से जाँच हो बल्कि पूरे बिहार में इस तरह का जाँच अभियान चलाया जाए और भ्रष्टाचार बिहार छोडो के नारे को वास्तविकता का अमलीजामा पहनाया जाए।


मित्रों, सवाल उठता है कि भागलपुर जिले में तीन-तीन डीएम आए और चले गए और तीनों के समय उनके नकली हस्ताक्षर से सरकारी खाते से करोड़ों रुपये गायब कर दिए गए और कैसे उनलोगों को कानोंकान खबर तक नहीं हुई? ऐसा कैसे संभव है? मानो गबन न हुआ झपटमारी हो गई. अगर ऐसा हुआ भी है तो ऐसा होना उन साहिबानों की योग्यता पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है और प्रश्न-चिन्ह लगाता है भारतीय प्रशासनिक सेवा में बहाली की प्रक्रिया पर.सवालों के घेरे में एजी और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी हैं जो २२ सालों में सरकारी चोरों को पकड़ने में विफल रहीं. कदाचित यह घोटाला आगे भी धूमधाम से चलता रहता अगर भागलपुर के वर्तमान डीएम आदेश तितरमारे का महज ढाई करोड़ का चेक कूद कर वापस न आ गया होता।


मित्रों, बिहार सरकार की काबिलियत पर सवाल उठाने का तो प्रश्न ही नहीं. मैं जबसे नीतीश २०१३ में एनडीए से अलग हुए तभी से कहता आ रहा हूँ कि बिहार में सरकार की मौत हो चुकी है और चारों तरफ अराजकता का माहौल है. लगता है जैसे बिहार में शाहे बेखबर बहादुरशाह प्रथम का शासन हो. मुख्यमंत्री न जाने किस दुनिया में मस्त थे. कहीं कुछ भी ठीक नहीं. हाईकोर्ट भी कहता है जब पैसे लेकर ही बहाली करनी है तो विज्ञापन,परीक्षा और साक्षात्कार का नाटक क्यों करते हो? सीधे गाँधी मैदान में शामियाना लगाकर नियुक्ति-पत्र क्यों नहीं बाँट देते?

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