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अर्दब में लालू परिवार

ब्रज की दुनिया
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मित्रों, पता नहीं आप कभी कुश्ती लड़ें हैं या नहीं. लड़ें तो हम भी नहीं हैं लेकिन लड़ाया बहुत है. मतलब कि बहुत-से डंकों में दर्शक की महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुका हूँ. तो मैं बताना चाह रहा था कि कुश्ती में कभी-कभी ऐसी जकड़न जैसी स्थिति पैदा हो जाती है कि पहलवान लाख कोशिश करके भी कुछ कर नहीं पाता, हिल भी नहीं पाता. इस स्थिति को कुश्ती की भाषा में अर्दब कहते हैं.
मित्रों, खुद अपने मुंह से अपने आपको भारतीय राजनीति के अखाड़े का सबसे बड़ा पहलवान अथवा राजनीति का पीएचडी बतानेवाले लालू प्रसाद यादव इन दिनों सपरिवार अर्दब की स्थिति में फंस गए हैं. बेचारे ने बड़ी धूमधाम से उस व्यक्ति के साथ गठबंधन किया था जिसके बारे में वे स्वयं कभी कहा करते थे कि इस आदमी के तो पेट में भी दांत है. तब नीतीश ज्यादा मजबूर थे. मजबूर तो लालू भी थे लेकिन कम थे. नीतीश ने अचानक अपनी सरकार बचाने के लिए लालू जी से मदद मांगी और लालू जी बिहार आगा-पीछा सोंचे गठबंधन कर लिया. पहले मंझधार में पड़ी मांझी सरकार और बाद में कथित छोटे भाई नीतीश कुमार की सरकार को डूबने से बचाया.
मित्रों, तब जिन-जिन लोगों ने लालू परिवार को गठबंधन करने से रोका था जिनमें सबसे आगे रघुवंश बाबू थे को डांट-फटकारकर चुप करवा दिया गया. इससे पहले भी नीतीश लालू जी को काफी नुकसान पहुंचा चुके थे. यहाँ तक कि बिहार की गद्दी छीन ली थी लेकिन फिर भी लालू जी ने गठबंधन किया.
मित्रों, ऐसा नहीं है कि धोखे की गुंजाईश सिर्फ नीतीश की तरफ से थी. याद करिए इसी साल जब यूपी चुनाव के समय प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी जी को कुत्ता-कमीना बता रहे थे ठीक उसी समय बिहार में उनकी पार्टी के नेता तेजस्वी को सीएम बनाने की मांग करने में लगे थे. वो तो भला हुआ कि यूपी में भाजपा जीत गयी वरना बिहार में बहुत पहले तख्तापलट हो चुका होता.
मित्रों, सोंचा था क्या और क्या हुआ. यूपी चुनाव के बाद नीतीश का पलड़ा भारी हो चुका था. नीतीश ठहरे राजनीति के चाणक्य. सो एक के बाद एक लालू परिवार की बेनामी संपत्ति का खुलासा होने लगा. उधर दिल्ली की केंद्र सरकार भी जैसे तैयार ही बैठी थी. धड़ाधड़ छापेमारी और ताबड़तोड़ जब्ती. संभलने का कोई मौका नहीं. लालू के दोनों बेटों का मंत्रालय तक जाना बंद हो गया.
मित्रों, इसी बीच आ गया राष्ट्रपति चुनाव. भाजपा ने बहुत सोंच-समझकर और शायद नीतीश कुमार से पूछ लेने के बाद बिहार के राज्यपाल को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना दिया. कोविंद इतने नीतीश फ्रेंडली रह चुके थे कि गाँधी मैदान में झंडा फहराने के बाद भी नीतीश सरकार द्वारा तैयार भाषण ही पढ़ते थे. नीतीश जो चाहते थे वो उनको मिल चुका था. मौका मिलते ही कूदकर भाजपा की तरफ हो लिए. लालू जी की पीएचडी की डिग्री धरी की धरी रह गयी. अब बेचारे सन्नाटे में हैं कि करें तो क्या करें. नीतीश को छोड़ देते हैं तो दोनों बेटे बेरोजगार हो जाएँगे और नहीं छोड़ते हैं तो भी सपरिवार जेल जाने की स्थिति उत्पन्न हो रही है. तरह-तरह के घोटालों से अर्जित धन-संपत्ति समाप्ति पर है सो अलग. वैसे भी नीतीश अब ज्यादा समय तक उनको ढोनेवाले नहीं हैं बल्कि सरकार में साथ रखकर भी धोने ही वाले हैं. समय का फेर देखिए कि चारा खानेवाला आज बेचारा बना हुआ है. भई गति चन्दन सांप केरी.

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