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मेरी सरकार मर गयी है हुजूर

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,मैंने ६ मार्च,२०१४ को एक आलेख लिखा था जिसका शीर्षक था मेरी सरकार खो गयी है हुजूर. यद्यपि वह आलेख भी मैंने बिहार सरकार की घनघोर अकर्मण्यता से परेशान होकर लिखा था तथापि उन दिनों मैं परेशान केंद्र सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसकी देशविरोधी नीतियों से भी था. नरेन्द्र मोदी जी और भारत की जनता-जनार्दन की कृपा से इन दिनों केंद्र में तो जरूर एक ऐसी सरकार आ गयी है जो सिर्फ और सिर्फ देश की भलाई के लिए काम कर रही है लेकिन बिहार में अभी भी न सिर्फ स्थिति वही है जो ६ मार्च,२०१४ को थी बल्कि उस समय की तुलना में और भी ख़राब ही हो गयी है.
मित्रों,हमारे गाँवों में जब कोई घर छोड़कर भाग जाता है और १२ सालों तक वापस नहीं आता है तो गाँव के लोग मान लेते हैं कि वो मर गया होगा और तब उसका श्राद्ध कर दिया जाता है. पता नहीं सरकार के लापता हो जाने के कितने दिनों के बाद मान लेना चाहिए कि सरकार मर गयी है. शास्त्र और स्मृति भी इस बारे में खामोश हैं. वैसे बिहार सरकार में मृतकों वाले सारे लक्षण मौजूद जरूर हैं. अब कोई डीका नौकरशाही द्वारा मुन्नीबाई के कोठे में बदल दिए गए अंबेदकर छात्रावास में दुष्कर्म के बाद मार दी जाती है और प्रशासन पूरे मामले की लीपा-पोती कर देता है, गुजरात की देखा-देखी राज्य सरकार पतंग-उत्सव का आयोजन तो कर लेती है लेकिन लोग आयोजन-स्थल पर कैसे आएंगे-जाएंगे का इंतजाम नहीं करती और जब कई दर्जन परिवार तबाह हो जाते हैं तो बलि का बकरा गरीब-लाचार नाववाले को बना देती है. मार्च,२०१४ में लोग-बाग़ हमसे कहा करते थे कि बिहार की नौकरशाही इन दिनों सिर्फ मीडिया से ही डरती है. मगर आज स्थिति यह है कि राजदेव रंजन की दिनदहाड़े हत्या के बाद वो मीडिया का भय भी उसके मन से जाता रहा.
मित्रों,कहने का मतलब यह है कि अबतक जो सरकार उलटी सांस ले रही थी उसकी पूरी तरह से मौत हो चुकी है. अब बिहार में ऐसी कोई संस्था नहीं रही जो जनता को नौकरशाही के क्रूर दमन-चक्र से बचा सके. अब तो हालत ऐसी है कि हम मीडियावाले खुद ही अफसरशाही से डरने लगे हैं. ऐसा भी नहीं है कि बिहार के लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ऐसा परिवर्तन कैसे आया. सीधी-सी बात है कि जब राजा ने ही मीडिया पर ध्यान देना बंद कर दिया है और उसे बेकार में कांव-कांव करनेवाला कौआ मानकर पूरी तरह से अनसुना करना शुरू दिया है तो फिर अफसरशाही क्योंकर उसे भाव देगी. लेकिन राजा साब यह भूल गए हैं कि यह मीडिया को उनके द्वारा दिया जानेवाला महत्व ही था जो उसके शासन को जीवंत बनाता था. बात इतनी होती तो फिर भी गनीमत थी लेकिन अब तो लगता है कि राजा साब ने मीडिया को अपना हितैषी तो दूर दुश्मन ही मानना शुरू कर दिया है. कदाचित राजा साब खुद को सचमुच में चुना हुआ नुमाईन्दा मानने के बदले राजा मानने लगे हैं. इतना ही नहीं वे लुई १४वें की तरह यह भी मानने लगे हैं कि वे हीं राज्य हैं और उनके कहे शब्द ही कानून. आगे मैं यह नहीं कह सकता कि बिहार में कब क्रांति होगी और किस रूप में और किस तरह होगी लेकिन होगी तो जरूर लुई १४वें न सही १६वें के समय ही सही लेकिन बास्तिल का किला ढहेगा,जरूर ढहेगा.

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