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सुप्रीम कोर्ट मेहरबान तो सिब्बल पहलवान

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,एक समय था जब सुप्रीम कोर्ट का जज या मुख्य न्यायाधीश बनने के लिए केंद्रीय कानून मंत्री का नजदीकी होना एकमात्र योग्यता बन गई थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने खुद पहल करके कॉलेजियम सिस्टम बनाया। सोंचा गया था कि ऐसा होने से जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता आएगी और सरकारी दखलंदाजी कम होगी। लेकिन समय के साथ कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की तरह न्यायपालिका भी भ्रष्ट होने लगी। न्यायमूर्ति अन्यायमूर्ति बनने लगे। जज अब मनमाफिक फैसला देने के बदले धन के साथ-साथ लड़कियों की मांग करने लगे। देश और लोगों की आखिरी उम्मीद न्यायपालिका में भी कॉलेजियम सिस्टम की आ़ड़ में जमकर भाई-भतीजावाद होने लगा।
मित्रों,पिछली मनमोहन सरकार में तो हमने यह भी देखा कि बेडरूम में जाँच-परीक्षण कर कांग्रेस के नेता वकीलों को जज बनाने लगे। न जाने इस दिशा में उनलोगों को कहाँ तक सफलता मिली और न जाने अभी कितने जज हमारे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में ऐसे हैं जो इस प्रक्रिया द्वारा जज बने और बनाए गए हैं।
मित्रों,पिछले कुछ महीनों से ऐसा देखा जा रहा है सुप्रीम कोर्ट मनमोहन सरकार में कानून मंत्री रहे कपिल सिब्बल पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है। यहाँ तक कि श्री सिब्बल फोन पर ही कोर्ट से फैसला करवा ले रहे हैं। ऐसा न तो पहले कभी देखा गया था और न ही सुना ही गया था। जबकि व्यक्ति विशेष के मामले में कोर्ट का ऐसा व्यवहार संविधानप्रदत्त समानता के अधिकार का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। उनके कहने पर सुप्रीम कोर्ट के जज घड़ी की सूई को पीछे करके स्पष्ट बहुमत वाले मुख्यमंत्री को विपक्ष में बैठा दे रहे हैं। उनके कहने पर सुप्रीम कोर्ट के जज यह जानते हुए कि एक राज्य का मुख्यमंत्री खुलेआम विधायकों की खरीद-ब्रिक्री में लगा हुआ है राज्य से राष्ट्रपति शासन हटा देते हैं। उनके कहने पर सुप्रीम कोर्ट अगस्ता मामले में सीबीआई को घोटालों की महारानी सोनिया गांधी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से रोक देता है जबकि उनको उनकी मदरलैंड इटली का कोर्ट पहले ही दोषी करार दे चुका है।
मित्रों,मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों सिब्बल की ऊंगलियों पर नाच रहा है? क्या यह कॉलेजियम के माध्यम से पूर्व में उनके द्वारा की गई कृपा का कमाल है या पैसे का या फिर यौनोपहार का? कहा गया है कि अति सर्वत्र वर्जयेत। अब कॉलेजियम भी अति करने लगा है और इस पर लगाम लगानी ही होगी। संविधान के अनुसार तो संसद सर्वोच्च है फिर न्यायपालिका कैसे संसद द्वारा बनाए गए किसी ऐसे कानून को गैरकानूनी घोषित कर सकती है जो उसकी मनमानी पर रोक लगाती हो?
मित्रों,कोई भी संस्था महान या गर्हित नहीं होती बल्कि महान या गर्हित होते हैं उसको चलानेवाले। अब समय आ गया है कि जब जजों की नियुक्ति के लिये मनमाने कॉलेजियम सिस्टम के स्थान पर ज्यादा पारदर्शी और संतुलित व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए। साथ ही न्यायपालिका को जवाबदेह भी बनाना जाना चाहिए जिससे जजों को भी सरासर गलत फैसला देने के बदले दंडित किया जा सके। आखिर जज भी इंसान है और उनमें भी इंसानी कमजोरियाँ है। वे कोई आसमानी तो हैं नहीं। अगर ऐसा होता है तो भविष्य में कोई भी जज किसी सीतलवाड़ पर मेहरबान और कोई भी भ्रष्टाचार का सिंबल पहलवान नहीं हो पाएगा।

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