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ई थरूरवा भांग खा के भकुआईल है का?

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,होली मस्ती का त्योहार है,उमंग का महापर्व है। होली और भांग का सदियों से बड़ा ही गहरा संबंध रहा है। अब तो ज्यादातर लोग होली में फोकटिया दारू गटकने के चक्कर में रहते हैं जबकि पहिले सिर्फ भांग घोटने का ही प्रचलन था। हमारे एक दादाजी कहा करते थे कि भांग खाए भकुआए गाँजा पिए झुक्के,दारू पिए … मरावे कुत्ता जईसन भुक्के। अब आप कहिएगा कि इस महान दोहे में हमने जो रिक्त स्थान छोड़ा है वहाँ क्या होगा तो अगर आप पूर्वी उत्तर प्रदेश या बिहार के हैं तो आप दोहे को पढ़ते ही पहली नजर में ही रिक्त स्थान की पूर्ति कर लेंगे। उन दादाजी का तो यह भी कहना था कि शराबियों की बातों पर कभी यकीन नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके बाप का भले ही पता हो बात का पता नहीं होता।
मित्रों,हम बात कर रहे थे भांग की। उपरोक्त दोहा कहता है कि भांग खाने से लोग भकुआ जाते हैं। लेकिन हमको यकीन नहीं होता कि शशि थरूर भांग खाते होंगे। ऊ तो महंगी-महंगी विदेशी शराब का सेवन करते होंगे। भांग तो गरीबों का नशा है कि घर के पिछवाड़े में गए और दस गो पौधा उखाड़ लाए हर्रे लगे न फिटकिरी और रंग भी चोखा होए। भले ही थरूर जी भांग नहीं खाते होंगे लेकिन दोहा में शराबी लोग के भी कौन-सी बड़ाई की गई है। अब आप समझ गए होंगे कि थरूरवा काहे फागुन महीने में कुत्ते की तरह भौंकने लगा।
मित्रों,अब बात करते हैं होली की। होली है तो बात होली की ही होनी चाहिए थरूरवा जाए चूल्ही के भाँड़ में चाहे हाथी के … में। वैसे तो बिहार के हर जिले के होली गीतों की अपनी विशेषता है लेकिन अपना गौरवशाली वैशाली जिला भी किसी से कम थोड़े ही है। वैशाली के गांवों में पहिले से सुबह में नाली साफ करने का कार्यक्रम चलता है। कीचड़ में सराबोर सफाईकर्मी लोग दूसरे लोगों को भी कीचड़ से सौंदर्यीकृत करते हैं। फिर दोपहर में लोग स्नान करते हैं। घर के कुछ लोग मीट-मुर्गा के जुगाड़ में सुबह-सुबह ही निकल जाते हैं और पीनेवालों को तो बस पीने का बहाना चाहिए और होली से अच्छा बहाना और कौन होगा सो पीनेवाले लोग जीजान से सुबह से ही पीना शुरू कर देते हैं। फिर शाम में दरवाजे-दरवाजे घूमकर होली गाई जाती है। होली की शुरुआत होती है गणेश वंदना से-पहिले सुमिर गणेश के,राम होरी हा मथुरा में बाजे बधाई। फिर बाबा हरिहर नाथ को याद किया जाता है-बाबा हरिहर नाथ सोनपुर में रंग खेले। फिर भगवान राम के गीत गाए जाते हैं-राम खेले होरी लछुमन खेले होरी,लंका गढ़ में रावण खेल होरी। उसके बाद होली के असली रस श्रिंगार रस से सराबोर गीतों की बारी आती है। भर फागुन बुढ़वा देवर लागे भर फागुन,होरी राम हो हो हो हो। फिर बुढ़वा जाईछऊ नेपाल अब कैसे रहबे बुढ़िया या फिर चोलिया बुटेदार ई रंग कहवाँ से लएलअ या गोरिया पातरी गोरिया पातरी जईसे लचके जमुनिया के डार या फिर बुढ़वा बड़ बईमान मांगेला बैगन के भर्ता। इन गीतों में मुख्य निशाने पर होते हैं गाँव के बड़े-बूढ़े लोग।
मित्रों,इस दौरान जिस दरवाजे पर गायन मंडली जमा रहती है उस घर की महिलाएँ बाल्टी और लोटे में भर-भरकर रंग लाती हैं और होली गायकों पर उड़ेलती रहती हैं। साथ ही सूखे मेवों का आपस में आदान-प्रदान होता है और सेब जैसे लाल गालों पर रंग-गुलाल मलने का सिलसिला तो चलता ही है। खास तौर पर नववधुओं,साला-सालियों या जीजाओं की तो जान पर ही बन आती है। गांव के दो-चार नए पियक्कड़ पीकर बकवास भी करते हैं जिससे खासकर बच्चों का खूब मनोरंजन होता है। रात में लोग जमकर मांस-मदिरा का भक्षण करते हैं और फिर सो जाते हैं होली की मधुर यादों को आँखों में लिए।
मित्रों,हम बात शुरू किए थे भांग और शशि थरूर के प्रसंग से और एक लोकप्रचलिए दोहे से। आप चाहें तो इस दोहे का नेताओं पर या दूसरे लोगों पर भी परीक्षण कर सकते हैं। जैसे जो नेता कम बोलते हैं लेकिन जब बोलते हैं तो उटपटांग ही बोलते हैं तो आप मान सकते हैं ऊ भांग घोटते हैं जैसे कि राहुल बाबा। जो नेता सदन में आकर सो जाते हैं उनके बारे में मान सकते हैं ऊ गाँजा पीते हैं और जो नेता कुत्ते की तरह आएँ-बाएँ भूँकते रहते हैं उनके बारे में आँख मूँदकर मान सकते हैं कि ऊ दारू पीते हैं वैसे ई काम तो लगभग सारे नेता ही करते हैं कुछ पार्ट टाईम और कुछ तो फुल टाईम। वैसे तो इस फार्मूले को आप सालोंभर आजमा सकते हैं लेकिन ई फार्मूला फागुन में ज्यादा काम करता है जब फगुनहट वाली मस्ती भरी हवा चलती है और आप तो जानते ही हैं कि होली के दिन तो किसी बात का बुरा मानना ही नहीं चाहिए क्योंकि इस दिन तो सब माफ होता है। तो हमको भी साल भर की बकवास के लिए माफ करिए और आज्ञा दीजिए काहे कि अब दरवाजे-दरवाजे होली गाने का समय हो गया है और हम गाते तो अच्छा हैं ही बजाते भी अच्छा हैं।

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