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मुंशी प्रेमचंद,डॉ. धर्मवीर और नीतीश कुमार

ब्रज की दुनिया
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28 दिसंबर,2014,हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में एक धारा चलती है दलित साहित्य। इस धारा के कई लोगों का मानना है कि दलितों के दर्द को बयान करने का अनन्य अधिकार सिर्फ दलितों को ही है। इनमें से एक डॉ. धर्मवीर ने तो दलितों के दर्द को सबसे ज्यादा जुबान देनेवाले व हिन्दी के महानतम कथाकार मुंशी प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी तक कह दिया। कदाचित इस धारा के समर्थकों के अनुसार दलितों पर दलित अत्याचार करे,दबंग दलित दलित अबला के साथ बलात्कार करे फिर भी दलितों के बारे में लिखेगा सिर्फ वही। वह व्यक्ति जो दलितों के साथ सहानुभूति रखता है,उनके सामाजिक,आर्थिक व शैक्षिक उत्थान के लिए अपने श्रम,धन व समय का व्यय करता है अगर वह दलित नहीं है तो फिर उसको दलितों के दर्द को बाँटने का अधिकार ही नहीं है। शायद वे यह भी मानते हैं कि कोई दलित अगर सड़क-दुर्घटना का शिकार हो जाए तो किसी गैरदलित को उसकी मदद नहीं करनी चाहिए भले ही उसके ऐसा करने से दुर्घटना-पीड़ित की मौत ही क्यों न हो जाए। वह व्यक्ति अगर ऐसा कुछ करता है तो शायद सीधे तौर पर वो अनाधिकार चेष्टा कर रहा है और ऐसा करने से उसको बलपूर्वक रोका जाना चाहिए।
मित्रों,कुछ इसी तरह की धारा राजनीति में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बहाना चाहते हैं और बहा भी रहे हैं। श्री कुमार भारतीय जनता पार्टी से इस बात को लेकर काफी नाराज हैं कि भाजपा ने आदिवासीबहुल झारखंड में किसी गैर आदिवासी को कैसे मुख्यमंत्री बना दिया। नीतीश जी की निगाह में भाजपा ने ऐसा करके एक गलत परंपरा की शुरुआत की है। शायद इसलिए उन्होंने महाअयोग्य जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर महान परंपरा की रक्षा की क्योंकि उनको लगता है कि श्री मांझी के सीएम बनते ही तत्क्षण सारे महादलितों के दिन बहुर गए। शायद नीतीश आँखवाले अंधे हैं। वे यह नहीं देख पाए कि पिछले 14 सालों में राज्य के शासन की बागडोर संभालनेवाले आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने राज्य की और राज्य के आदिवासियों की क्या हालत कर दी है। जनता (मुसहर) शासक (मांझी) की जाति लेकर क्या उसका अँचार डालेगी? जनता को तो सुशासन से मतलब है फिर चाहे वो रघुवर दास लाएँ या नीतीश कुमार या कोई भी और। क्या कोई सड़क-दुर्घटना पीड़ित सहायता प्राप्त करने से पहले मदद करनेवाले की जाति या धर्म पूछता है या उसको सिर्फ मदद पाने से मतलब रहता है? पिछले 14 सालों में जिन आदिवासी नेताओं ने झारखंड को लूट लिया उनको क्या उनके ऐसे कृत्य के लिए नीतीश कुमार सम्मानित करना पसंद करेंगे? क्या नीतीश कुमार सहित सारे समाजवादियों के लिए जाति ही सबकुछ होती है या धर्म ही सर्वस्व होता है? लोगों के कर्मों और चरित्र की कोई कीमत नहीं? क्या नीतीश कुमार जी किसी मूर्ख स्वजातीय या दलित चिकित्सक से ऑपरेशन या ईलाज करवाना पसंद करेंगे बजाए किसी सवर्ण योग्य डॉक्टर से? क्या पिछड़ी जाति होने के चलते लालू जी के तमाम काले कारनामे अचानक उजले हो गए? छि,घिन्न आती है मुझे ऐसे नेताओं से और इस बात को लेकर शर्म आती है कि ऐसे नेता ने हमारे राज्य बिहार में जन्म लिया!!!

(हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)

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