- 707 Posts
- 1276 Comments
18-03-2014,ब्रजकिशोर सिंह,हाजीपुर। मित्रों,कहते हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है लेकिन जब बात पर्वों-त्योहारों या परंपरा की हो तो कभी-कभी परिवर्तन की गति या मात्रा हमें चिंतित भी करने लगती है। होली को ही लें जो भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। शहरों में तो पहले से भी होली सांकेतिक ही थी लेकिन अब तो गाँवों में भी शहरी होली मनाई जाने लगी है। इस बार की होली में हाजीपुर शहर में होली के कई दिन पहले से ही विभिन्न व्यवसायी संगठनों द्वारा होली-मिलन समारोहों का आयोजन होने लगा था। मैं उनमें से एक समारोह में निमंत्रित भी था। होलिका-दहन के दिन जाने पर देखा कि सामुदायिक भवन हाजीपुर में जगह-जगह बिजली कंपनियों की होर्डिंग्स लगी हुई थी। स्टेज पर दो-चार लोग बैठे हुए थे और एक स्थान पर डीजे पर भोजपुरी गीत बज रहा था और कई लोग बेसुरा डांस कर रहे थे। सामने कुर्सियाँ लगी हुई थीं जिन पर कई सौ लोग बैठे हुए थे। मैंने दो गिलास दूध पिया,कुछ तस्वीरें लीं और चल दिया। वहाँ मेरा दम घुटने लगा। दरअसल वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था जिसको कि मैं होली मानता और रुकता।
मित्रों,कल होकर होली के दिन मैं दोपहर दो बजे अपनी ससुराल के लिए रवाना हुआ। रास्ते में जितने भी गाँव मिले लगभग सभी गाँवों में लोग साउंड बॉक्स पर गंदे भोजपुरी होली गीतों की धुन पर थिरकते मिले। आयु यही कोई 8-10 से 30 तक की। उनके लड़खड़ाते पाँव यह बताने को काफी थे कि वे अहले सुबह से ही शराब पी रहे थे। रास्ते में कई स्थानों पर युवक मोटरसाईकिल पर हंगामा करते हुए भी देखे गए। कई स्थानों पर कीचड़ और गोबर से सने युवक हुल्लड़बाजी करते हुए भी देखे गए। मैंने अपनी ससुराल पहुँचते ही सालों से पूछा कि आपके गाँव में तो लोग हर दरवाजे पर घूम-घूमकर होली गाते ही होंगे तो उन्होंने बताया कि यहाँ कई साल पहले तक तो ऐसा होता था लेकिन अक्सर गायन मारपीट में बदल जाता था इसलिए अब इस परंपरा को बंद कर दिया गया। सुनकर मैं सन्नाटे में आ गया। फिर गाँव और शहर की होली में फर्क ही क्या रह गया? मैं तो होली गीतों का आनंद लेने ही ससुराल गया था लेकिन वहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। शाम में कुछ बच्चे जरूर मुझसे मिलने आए लेकिन मेरी होली तो पहले ही फीकी हो चुकी थी। दरअसल,गाँव से लेकर शहर तक होली इतनी बदल चुकी थी और मुझे पता तक नहीं चला। जिस तरह ग्रामीण समाज में नैतिकता का ह्रास हुआ है,लोगों ने अपनी माँ-बहनों और रिश्तों की अहमियत को भुला दिया है उससे एक दिन तो ऐसा होना ही था। शहरी समाज में तो रक्त-संबंध होते ही नहीं इसलिए वहाँ तो परंपरागत होली की सोंचना भी नहीं चाहिए। अब गाँवों में भी लोग घूम-घूमकर ढोलक-झाल की थाप पर होली नहीं गाते और न ही घर-घर जाकर होली ही खेलते हैं। अब गाँवों में भी नववधुओं को रंगों में स्नान नहीं करवाया जाता। अब गाँवों में भी हर घर में प्रणाम करने या अबीर लगाने पर लोग सूखे नारियल,किशमिश आदि मेवों का मिश्रण नहीं खिलाते। अब गाँवों में भी होली के बाद भी आपसी दुश्मनी और रंजिश बनी रहती है और उसमें कमी लाने के बदले होली उसमें बढ़ोतरी ही कर जाती है। जब पूरा समाज ही अपने मूल स्वरुप से भटक गया हो तो होली को तो अपने मूल स्वरुप से दूर हो ही जाना था,सो हुआ। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
Read Comments