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मैं कुतिया हूँ!

ब्रज की दुनिया
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मैं दुनिया की कथित रूप से सबसे सभ्य प्रजाति आदमी की भाषा में एक कुतिया हूँ। मैं जानती हूँ कि उनकी भाषा में यह एक गाली है यानि मैं दुनिया के लिए एक गाली हूँ। इंसानों को क्या पता कि मेरा जीवन कितना दुःखमय रहा है। जबसे पैदा हुई जाड़ा,गर्मी और बरसात सब मैंने नीले आसमान के तले गुजारी है। कभी किसी ने रोटी दे दी तो किसी ने लात मार दी। रोटी देनेवाले को मैंने पूँछ हिलाकर हमेशा शुक्रिया कहा मगर लात मारनेवाले को कभी काटा नहीं। मैं खुदमुख्तार और आजाद हूँ इसलिए भी मुझे दुःख के थपेड़ों का ज्यादा सामना करना पड़ा। कई बार इंसान हम जैसे स्वतंत्रता पसंद कुत्तों को आवारा भी कह डालते हैं लेकिन हम आवारा नहीं हैं हम तो समय के मारे हैं। इतना कष्ट उठाने के बावजूद मुझे अपनी जिंदगी को लेकर तब तक कोई शिकायत नहीं थी जब तक कि मैं माँ नहीं बनी थी।
यही कोई एक महीना पहले मैंने 8 छोटे-छोटे बच्चों को जन्म दिया। 5 काले,दो भूरे और एक चितकबरा। उनमें से चितकबरे को मेरे निवास-स्थान यानि जिस खुले मैदान में मैं रहती हूँ के सामनेवाले घर ने अपना लिया और इस तरह मेरे पास बच गए 7 बच्चे। जब भी कोई इंसान हमारे बच्चों को अपनाता है तो एक साथ हमें दुःख और सुख दोनों होता है। दुःख होता है अपने बच्चे से बिछुड़ने का और सुख होता है यह सोंचकर कि मेरे एक बच्चे का जीवन अब सुरक्षित हो गया। उसी घर के बगल के घर में एक बुढ़िया रहती है जो जब-तब मेरे बच्चों को डंडे और लात से मारती रहती है। बच्चों का क्या वे चले ही जाते हैं उसके कैंपस में रोटी के लालच में।
अभी दस दिन भी नहीं बीते थे मुझे माँ बने कि ठंड पड़नी शुरू हो गई। आप इंसान तो रजाई ओढ़कर आराम से ठंड गुजार लेते हो हम पर इस मौसम में क्या बीतती है यह हमीं जानते हैं। गाँव में तो बुझे हुए अलाव के गड्ढ़ों में बैठकर या घास-भूसे के ढेर में घुसकर हमारे रिश्तेदार गर्मी प्राप्त कर लेते हैं परंतु शहरों में तो खुले आसमान के तले ठिठुरने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं बचता। अकेली थी तो कोई चिंता नहीं थी लेकिन इस बार 7-7 बच्चे भी तो थे। मैं सातों बच्चों को अपने तन से ढँक लेती और रातभर अपने शरीर की गर्मी देती रहती जिससे उनको ठंड न लगे और उनकी मृत्यु न हो। सुबह होते ही फिर पेट भरने की जद्दोजहद। अगर खाना न खाऊँ तो दूध कैसे बने और बच्चों को क्या पिलाऊँ? यकीन मानिए मैं कभी अपने अपने बच्चों को अकेले नहीं छोड़ना चाहती मगर एक तो मेरे पेट की आग और फिर बच्चों को भी दूध चाहिए इसलिए जहाँ-जहाँ इंसान कूड़े फेंकता है मैं भटकती रहती हूँ कि कुछ अवशिष्ट-जूठन मिल जाए।
इसी तरह एक दिन मैं बच्चों के पास नहीं थी। बच्चों को आपस में खेलता-कूदता छोड़कर दूर निकल गई थी कि अचानक इंसानों के तीन-चार शरारती बच्चे आए और मेरे एक काले रंगवाले बच्चे को पूँछ से पकड़कर उठाकर ले गए। मैं दूर से ही सबकुछ देख रही थी। फिर उन्होंने उसको जूठी सब्जियों के रस से भरे गड्ढ़े में डूबा दिया। बेचारा तड़प उठा एक तो भीषण ठंड उस पर मिर्च-मसालों की जलन। उन बच्चों का दिल इतने से ही नहीं माना और वे उस पर पत्थर भी बरसाने लगे। तभी उस पर एक देवदूत सरीखे इंसान की नजर पड़ी और उन्होंने बच्चों को भगाकर मेरे बच्चे को अपने हाथों से बाहर निकाला। जब वह देवदूत बच्चे को अन्य बच्चों के पास छोड़ने आ रहा था तब गलतफहमी में मैं उस पर गुर्राई भी थी मगर उसने कुछ भी बुरा नहीं माना। फिर मैं उस बच्चे को देर तक चाटती रही जिससे उसका तन तो सूख ही जाए उसकी थरथराहट भी दूर हो जाए। खैर किसी तरह मेरा वह प्यारा बच्चा जीवित बच गया।
लेकिन वो कहते हैं न कि जब विपदा आती है तो अकेली नहीं आती। कल होकर वही क्रूर बच्चे फिर से आए और मेरे एक भूरेवाले बच्चे को साथ लेकर चले गए। उसी दिन शाम में मैंने उसकी लाश बगल के चौराहे पर पड़ी हुई देखी। वो मेरा सबसे बड़ा बच्चा था। भोला था,तुरंत इंसानों पर विश्वास कर लेता था और थोड़ा-सा पुचकारने पर पीछे-पीछे चल देता था। मैं उसके मृत शरीर को दूर से ही देखती रही और रोती रही,अकेली,चुपचाप। फिर भी मैं उन शरारती बच्चों को शाप नहीं दूंगी मैं इंसान थोड़े ही हूँ कि बदले की भावना रखूँ।
यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे निवास के पास एनएच नहीं है अन्यथा मेरे कई बच्चे अब तक सड़क-दुर्घटना के शिकार हो चुके होते और इंसानों की मौत मर चुके होते। आज कई दिनों के बाद आसमान पर चटख धूप खिली हुई है। रातभर मेरे छहों बच्चे मुझसे चिपककर ठंड के मारे कराहते रहे लेकिन अभी आपस में खेल-कूद रहे हैं। उनमें से कुछ इतने बड़े हो गए हैं कि खड़े-खड़े ही मेरा दूध पी लेते हैं और मुझे उनको दूध पिलाने के लिए झुकना या बैठना नहीं पड़ता। लगभग सारे-के-सारे बच्चे अब भोजन की तलाश में खुद ही कूड़ों का चक्कर भी लगाने लगे हैं। मैं क्या करूँ बड़ा होने के साथ उनका पेट भी तो बढ़ने लगा है और सिर्फ मेरे दूध से उनकी भूख नहीं मिट पा रही। इंसानों ने भी अब बचा हुआ भोजन फेंकना कम कर दिया है और जो कुछ भी बचता है वे उसे फ्रिज में रख देते हैं। पता नहीं आनेवाले समय में मेरे बच्चों का जीवन कैसे कटेगा? वैसे भी दिन-प्रतिदिन इंसानों का नैतिक पतन होता जा रहा है। वे अब अपनों को भी नहीं बख्श रहे। हमारे बच्चों को भी तो रहना आखिर इंसानों की दुनिया में ही है। (हाजीपुर टाईम्स पर भी प्रकाशित)
पुनश्च-11-01-2014, मित्रों कल रात से ही हाजीपुर में बरसात हो रही है। मेरी पड़ोसन कुतिया के तीन काले वाले बच्चे रात की बारिश और ठंड को झेल नहीं सके और रात में ही दम तोड़ दिया। खुले मैदान में वो जीवित रह भी कैसे सकते थे जबकि सबकुछ जमा देनेवाली ठंड पड़ रही हो? सुबह अपने बचे हुए बच्चों को लेकर वो कई परिसरों में गई कि कोई तो ऐसा दयालु इंसान होगा जो उसे और उसके बचे हुए तीनों बच्चों को आश्रय दे देगा लेकिन कहीं तो उस पर डंडों की बरसात की गई तो कहीं लात-जूतों की। बरसात अभी भी जारी है और ठंड लगातार बढ़ती जा रही है लेकिन वो बेचारी कुतिया अपने बच्चों के साथ लगातार वर्षा में भींग रही है।

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