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आज भी प्रासंगिक हैं भवानी प्रसाद मिश्र

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,हम हिन्दीभाषियों को अपनी भाषा और अपने लेखकों-कवियों से कितना प्रेम है कहने की जरूरत नहीं है। हम एक तरफ तो हिंदी की बदहाली का रोना रोते हैं वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों को सिर्फ अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं। आज हममे से कितने लोगों को याद होगा या पता होगा कि इस साल हमारे किन-किन लेखकों-कवियों की जन्मशताब्दी है? भले ही हमें याद हो या नहीं हो लेकिन सच तो यही है कि अगर अभी महाकवि भवानी प्रसाद मिश्र जीवित होते तो सौ साल के होते। आज से 100 साल पहले 29 मार्च,1913 को भारत का हृदय कहे जानेवाले मध्य प्रदेश में सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच अपनी धुन के पक्के एक महाकवि का जन्म हुआ था। माता-पिता ने उसको माता भवानी का आशीर्वाद मानते हुए नाम रखा भवानी प्रसाद अर्थात् भवानी प्रसाद मिश्र। बड़ा होकर यही बच्चा कवि बना,महाकवि। उसकी भाषा जनभाषा के अत्यंत निकट थी और उसके शब्द उसकी ही तरह सरल होते थे लेकिन उतने ही अर्थपूर्ण। वो जिस तरह सोंचता था उसी तरह से बोलता था और जिस तरह से बोलता था उसी तरह से लिखता था और ताल ठोंककर लिखता था। उसकी अपने समकालीन कवियों को खुली चुनौती थी-
जिस तरह हम बोलते हैं,उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख
चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाय
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाय।
बचपन से ही वह जब भी लिखता इतनी तन्मयता से लिखता कि कागज,कलम और खुद को एकाकार कर देता था-
जब मैं कविता लिखने नहीं बैठा था
तब कागज कागज था
मैं मैं था और कलम कलम
मगर जब लिखन बैठा
तो तीन नहीं रहे हम एक हो गए।
मित्रों,जवानी आने पर भवानी प्रसाद को नए जमाने की छल-चातुरी कभी नहीं भाई। खुद तो इससे दूर रहे ही छली-चतुर लोगों को भी अपने से दूर रखा-
चतुर मुझे कुछ भी
कभी नहीं भाया
न औरत न आदमी
न कविता
उस कवि को कला कला के लिए में तनिक भी विश्वास नहीं था। उसने जो भी लिखा मजबूरों के लिए लिखा,मजलूमों के हक के लिए लिखा। उसका सीधा-सीधा मानना था कि
कवि आसमान का नहीं
धरती का होता है
अपने से ज्यादा
अपनों का होता है।
वह भदेसपन का कवि था और पूंजीवादी-शहरी और स्वार्थवादी सभ्यता सदैव उसके अचूक निशाने पर रही-
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके कपड़े महज बने हैं
आप सभ्य हैं क्योंकि आपके जबड़े खून सने हैं।
मित्रों,हालाँकि भवानी जी जीवनपर्यंत लेखन को अपना सहज कर्त्तव्य समझते थे परंतु हिन्दी और हिंदी लेखकों की फटेहाली उनसे छिपी हुई भी नहीं थी वे खुद भुक्तभोगी जो थे। तभी तो इस मशहूर कविता में उन्होंने अपने साथ-साथ समस्त हिंदी कवियों-लेखकों के दर्द को उड़ेलकर रख दिया है-
जी हाँ हुजूर,मैं गीत बेचता हूँ
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ
जी माल देखिए दाम बताऊंगा
…………………….गीत बेचता हूँ।
मित्रों,देश के राजनैतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में जो स्खलन हो रहा था,खालीपन आ रहा था उससे महाकवि खुद को भी रीता हुआ महसूस करते थे-
भैया
मैं तो पात्र हूँ तुम्हारा
इस आशा से आता हूँ सामने
कि तुम मुझे भरोगे
जी होने पर मेरा खालीपन
खुद तुम ही हरोगे।
भवानी जी अपने परिवेश के प्रति खासे संवेदनशील थे। उनको न केवल उनके दौर में हो रहे मूल्यों का अवमूल्यन ही बल्कि दिखावेवाली झूठी चेतना भी न सिर्फ चिंतित करती थी बल्कि डराती भी थी क्योंकि भविष्य का निर्माण वर्तमान ही से तो होता है-
चेतना का मतलब है पैदा होओ,मरो
चेतना का मतलब है हंसो रोओ,डरो
चेतना का मतलब है क्रोध करो,घृणा करो
चेतना का मतलब है हिलो,मिलो विरोध करो
झूठमूठ प्यार करो,झूठमूठ शरम करो
झूठमूठ सत्य कहो,झूठमूठ धरम करो।
मित्रों,यूँ तो भवानी बाबू का पूरा जीवन आम-आदमी को जगाने की जुगत में ही बीता परंतु जब उन्हें इस काम में अपेक्षित सफलता मिलती नहीं दिखी तब उन्होंने प्राकृतिक शक्तियों को आह्वान किया कि वे सोये हुए आम आदमी को जगाएँ उनसे तो यह जगाए नहीं जग रहा-
भई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ
भई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ
यह आदमी जो सोया पड़ा है
जो सच से बेखबर
सपनों में सोया पड़ा है
भई पक्षी उसके कानों में चिल्लाओ।
निश्चित रूप से भवानी बाबू शाश्वत जागरण के कवि थे और परिवर्तन चाहते थे परंतु उनकी इस मामले में एक शर्त भी थी कि वह परिवर्तन दिशाहीन न हो,रक्तरंजित न हो। इस मामले में वे क्रूर साम्यवादी नहीं थे बल्कि सदय गांधीवादी थे-
हम मुँह से कहते रहे अहिंसा मन में हिंसा धरे रहे
हम गांधी जी के बावजूद प्रतिक्षण हिंसा में भरे रहे।
अगर तुम्हे लड़ना है लड़ो हम नहीं लड़ेंगे
तुम हमारी सीमा में बढ़ो,हम नहीं बढ़ेंगे
..कोरे मारने वालों को हिला दो
हमेशा के लिए हिंसा को खाक में मिला दो।
भवानी प्रसाद जी परिवर्तन ला सकने में असफल तो हुए थे परंतु निराश नहीं थे और हताश तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि उनको इस बात का संतोष था कि उन्होंने प्रयास तो किया था-
मगर तय है कि यह उदास होने से नहीं होगा
निराश होने से तो होगा ही नहीं
हिम्मत और प्रसन्नता से
छोटे-छोटे कामों में
जुट जाने से होगा। (उनकी प्रसिद्ध कविता तख्तोताज कबाड़ी बाजार में बिकते हैं से)
इतना ही नहीं भवानी बाबू परिवर्तन के दौरान भी अच्छी भारतीय परंपरा के रक्षण के समर्थक थे क्योंकि उनका मानना था कि सुनहरे और सुरक्षित भविष्य का निर्माण शून्य में नहीं हो सकता-
पुराना और कठोर जैसा स्फटिक
हर चोट पर फेंकता है नई से नई चिनगारी
…… अर्थ पुराने से पुराने शब्दों में से नए संदर्भों में
मेरा आज का मन एक नया संदर्भ है
मगर ऐसा नया भी नहीं कि लगाव न हो उसका किसी पुराने के साथ
लगाव के बिना कुछ भी नहीं रह सकता।
भवानी बाबू की मानवता और मानवीय गुणों में अगाध आस्था थी और सबसे ज्यादा आस्था थी प्यार में,प्रेम में-
कितना भी भ्रष्ट जमाना हो
हर जगह प्यार जा सकता है।
मित्रों,भवानी बाबू ने कभी सम्मान या कुर्सी की अभिलाषा नहीं की बल्कि उनके लिए तो तख्तो-ताज कबाड़ी बाजार में बेचने लायक वस्तु थी-
कई बार तख्तोताज
कबाड़ी बाजारों में बिकते हैं
या कहो धरे के धरे रह जाते हैं
कबाड़ी बाजारों में
लोग उन्हें सिर्फ देख-दाख कर
निकल जाते हैं।
जाहिर है ऐसी बात वही व्यक्ति कर सकता है जिसको लालच और स्वार्थ छू भी नहीं गया हो। भवानी बाबू सार्थक जीवन जीने की बात करते थे। उनके मत में सार्थक जीवन वही है जो-
तपित को स्निग्ध करे
प्यासे को चैन दे
सूखे हुए अधरों को फिर से बैन दे। (असाधारण)
भवानी बाबू ने अगर जीवन को अपनी शर्तों पर जिया तो मौत से भी आँखों में आँखे डालकर बातें की। उनके अनुसार खामोशी से मरना भी कोई मरना होता है बल्कि मरना तो वही अच्छा है जो-
लंगड़े को पांव और लूले को हाथ दे बोले जो हमेशा सच
…रूकती-सी दुनिया को आगे बढ़ा दे जो मरना वही अच्छा है।
सच भी यही है कि भवानी प्रसाद मिश्र ने यथास्थिति को भंग करने का अथक प्रयास किया और रूकती-सी दुनिया को गति दी-
यह गीत सख्त सरदर्द भुलाएगा
यह गीत पिया को पास बुलाएगा
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है।
मित्रों,कहते हैं कि जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि। भवानी प्रसाद मिश्र भले ही आज सदेह हमारे बीच उपस्थित नहीं हों लेकिन अपनी कविता के माध्यम से वे कालोत्तीर्ण हैं और रहेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि दिनोंदिन हमारे लिए उनकी प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। भवानी बाबू ने जिन आर्थिक,राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं पर अपनी लेखनी द्वारा भरपुर प्रहार किया था उनमें उनके जाने के बाद (20 फरवरी 1985) किंचित भी कमी नहीं आई है उल्टे स्थितियाँ बद से बदतर ही हुई हैं और होती जा रही हैं। जिस तरह भारत के लोगों ने त्रेता में वाल्मिकी और द्वापर में वेदव्यास को अनसुना कर दिया था अब तक उन्होंने भवानी बाबू पर कान नहीं दिया है तो यह हम भारतीयों की सीमा अथवा कमी है न कि महाकवि स्व. भवानी प्रसाद मिश्र की।

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