ब्रज की दुनिया
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जिन्दगी एक सजा हो गई हो जैसे,
जिन्दगी बेमजा हो गई हो जैसे।
यूँ तो जीते रहे हम जिंदादिल की तरह,
पर कहीं कोई कमी-सी रह गई हो जैसे।
कतरा-कतरा करके बालू की तरह,
मुट्ठी से जिंदगी रिस गई हो जैसे।
जाड़े की धूप की तरह खुशियाँ,
चढ़ते-चढ़ते ढल गई हों जैसे।
किसी को फर्क नहीं मेरे होने या न होने से,
स्टेशन पर खड़े-खड़े ट्रेन छूट गई हो जैसे।
अब बेरंग है हर होली और बेनूर दिवाली,
मेरी तरह इनमें भी तासिर नहीं हो जैसे।
जिन्दगी एक सजा हो गई हो जैसे,
जिन्दगी बेमजा हो गई हो जैसे।
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