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टाटा कंपनी कब पिएगी छोटी पत्ती की चाय?

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,अब तक मैं शब्दों में बात करता रहा हूँ लेकिन इस दफे मैं दृश्यों में बात करूंगा। दृश्य एक:-स्थान-घाटो,जिला-रामगढ़,झारखंड। प्रतिष्ठित टाटा इस्पात कंपनी की कोलियरी का एक मजदूर अपना वेतन प्राप्त करने आया हुआ है। पहले उसको 20 हजार मासिक मेहनताना मिल रहा था परंतु इस बार उसे हाथ आए हैं मात्र 5 हजार रूपए। जैसे कि कंपनी उनके साथ साँप-सीढ़ी का खेल खेल रही हो और उस खेल में उसके 99 पर पहुँच चुके वेतन को साँप ने काट लिया हो और उसका वेतन फिर से 1 पर आ गया हो। उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई है। उसके सारे सपने चूर-चूर हो गए हैं। एक बेटी की शादी करनी है,घर का खर्चा भी चलाना है और दो बेटे जो राँची में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं को भी पैसा भेजना है।
दृश्य दो:-स्थान-नई दिल्ली,टाटा कंपनी के पूर्व सर्वेसर्वा और टाटा परिवार के कुलदीपक रतन टाटा केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री अजित सिंह के कार्यालय में उनसे मिलने के लिए पधारे हुए हैं। श्री टाटा कई हजार करोड़ रूपए की लागत से एक नई विमानन कंपनी खोलना चाहते हैं।
मित्रों,आपने दोनों दृश्य देखे। आशा है कि आप मेरे आलेख के विषय से अवगत हो गए होंगे तो अब हम आते हैं विषय पर। हिन्दी में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध रही है-पर उपदेश कुशल बहुतेरे। आपने टाटा टी का वह विज्ञापन हजारों बार अपने टेलीवीजन पर देखा होगा जिसमें कि कंपनी देशवासियों से बड़ी ड्यूटी और छोटी ड्यूटी पूरी करने के लिए बड़े ही नाटकीय तरीके से अपील करती है। लेकिन ऊपर के दोनों सच्चे दृश्य तो चीख-चीख कर यह कह रहे हैं कि कंपनी खुद ही अपनी छोटी ड्यूटी को पूरा नहीं कर रही है। कितना बड़ा विरोधाभास है कि एक तरफ तो दैत्याकार भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ नकदी के पर्वताकार ढेर पर बैठी हैं वहीं कंपनी ने अपने गरीब कर्मचारियों को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। वे बेचारे न तो नौकरी छोड़ ही सकते हैं और न तो कर ही सकते हैं। ऐसा भी नहीं है कि घाटो कोलियरी में ट्रेड यूनियन न हों लेकिन वे सबके सब या तो क्रीतदास हैं या फिर भयभीत।
मित्रों,हम भी यही चाहते हैं कि टाटा कंपनी खूब फूले-फले,टाटा परिवार के लिए हर दिन होली और हर रात दिवाली हो मगर हम यह नहीं चाहते कि वह होली और दिवाली कंपनी अपने मजदूरों की झोपड़ियों को फूँककर मनाए। क्या विडंबना है कि टाटा के पास बड़ी ड्यूटी पूरी करने के लिए अर्थात् नया एयरलाइंस खोलने के लिए तो बहुत पैसा है लेकिन कई दशकों से उसकी आर्थिक उन्नति में योगदान दे रहे अपने कर्मचारियों के लिए उसकी अंटी में चंद खुल्ले भी नहीं हैं। क्या रतन टाटा या साइरस मिस्त्री ने कभी सोंचा है कि दिन दूनी रात चौगुनी की रफ्तार से बढ़ती महँगाई के युग में वे कर्मचारी सपरिवार अपनी बची-खुची जिंदगी कैसे काटेंगे,अपनी प्राणरक्षा भी कैसे कर पाएंगे जिनका वेतन उन्होंने अचानक आधा या चौथाई कर दिया है? उनमें से कुछ कर्मचारियों का वेतन तो रतन टाटा के जमाने में ही यानि कुछ महीने पहले ही आधा कर दिया गया था और जो उस समय बच गए थे उनका वेतन अब एक चौथाई कर दिया गया है क्योंकि कंपनी वेतन आधा करने के साथ ही रतन टाटा युग में कटौती नहीं कर पाने की अपनी भूल को भी सुधार रही है।
मित्रों,रतन टाटा जी या मिस्त्री जी को तो सिर्फ अपने बैलेंस-शीट से मतलब है उन्होंने न तो कभी गरीबी की मार ही झेली है और न ही कभी जानलेवा महँगाई में घटती आमदनी के कारण कभी उनको रोटी के लाले ही पड़े हैं। उनके लिए तो जीवित मजदूर भी जड़ मशीनों के माफिक हैं जिसके न तो मुँह होता है,न तो पेट ही और न तो परिवार ही।
मित्रों,भारतमाता के अनमोल रतन रतन टाटा जी और उनके महान व योग्य उत्तराधिकारी साइरस मिस्त्री जी ने दूसरों को जागने तथा बड़ी और छोटी ड्यूटी पूरी करने का उपदेश देने से पहले क्या कभी सोंचा है कि वे अपनी छोटी ड्यूटी कब पूरी करेंगे? वे स्वयं कब छोटी पत्ती की चाय पीने के लायक होंगे?

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