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मित्रों,इस समय पड़ोसी बर्मा की कथित लोकतंत्रवादी नेता आंग सान सू की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की यात्रा पर आई हुई हैं। वे यहाँ व्याख्यान देंगी और लोकतंत्र संबंधी अपने विचारों से भारत को लाभान्वित करेंगी। उन्हें जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल लेक्चर देने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से औपचारिक न्यौता दिया गया था। निश्चित तौर पर सू की प्रसिद्धि महान लोकतंत्रवादी नेता के रूप में रही है। लोकतंत्र के लिए आंग सान के संघर्ष का पिछले २० वर्ष में कैद में बिताए गए १४ साल इसके गवाह हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि नवीन घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में क्या आंग सान को लोकतंत्र का सच्चा सिपाही,सच्चा पुजारी या सच्चा पैरोकार कहा जा सकता है? जिस तरह से उन्होंने सुनियोजित तरीके से उनके देश में रोहिंग्या मुसलमानों के बौद्ध बहुसंख्यकों द्वारा किए जा रहे नरसंहार के प्रति तटस्थ-भाव प्रदर्शित किया है वह किसी भी तरह महान लोकतंत्रवादी के रूप में उनके यश के अनुरूप है? यह तो वही बात हुई कि हम बर्मा में लोकतंत्र तो चाहते हैं लेकिन ऐसा लोकतंत्र चाहते हैं जिसमें सिर्फ बहुसंख्यक बौद्धों के लिए स्थान हो और अल्पसंख्यक रोहिंग्या मुसलमानों को उस लोकतंत्र में दोयम दर्जे का नागरिक बनकर भी जीने का अधिकार नहीं हो। क्या इस तरह के दूषित और नाजीवादी लोकतंत्र के लिए किया है आंग सान ने 20 सालों तक संघर्ष?
मित्रों,लोकतंत्र का मूल मंत्र होता है असहमत होने की और अपना विश्वास मानने की समानतापूर्ण आजादी। अगर आप अल्पसंख्यकों को अपने ही देश में संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार दुनिया का सबसे अभागा शरणार्थी बनाकर रखना चाहती हैं तो फिर आपको कोई हक नहीं है खुद को लोकतंत्रवादी कहने का। माना कि आप उनकी दुःखद स्थिति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन क्या उनको इस स्थिति में पूरी तरह से मौन या तटस्थ हो जाना चाहिए? क्या उनके इस मौन में अत्याचार के प्रति सहमति छुपी हुई नहीं है? जब कोई सबल समुदाय किसी निरीह और निर्बल समूह के मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन करता है,यहाँ तक कि उनकी सामूहिक हत्या तक करता है तब कैसे एक संवेदनशील मानव तटस्थता का भाव धारण कर सकता है? फिर आंग सान तो कथित रूप से अपने देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए सक्रिय हैं। वे जिन महानुभाव की स्मृति में व्याख्यान देने के लिए भारत पधारी हैं अगर उनके सामने उनके जीते-जी ठीक इसी तरह की समस्या खड़ी हो गई होती तो क्या वे तटस्थ रह पाते। अगर नहीं तो फिर क्यों आंग सान को पं. नेहरू की स्मृति में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया और क्यों उनकी इस यात्रा को क्यों आधिकारिक दर्जा दिया गया? क्यों भारत सरकार ने कांग्रेस पार्टी की नासमझ अध्यक्ष के शौक को या बालहठ को पूरा करने के लिए भारत के नागरिकों की गाढ़ी कमाई को महंगाई के वक्त में बर्बाद होने दिया? मैं नहीं समझता कि ऐसे पाखंडी लोकतंत्रवादी को पं. नेहरू की स्मृति में आयोजित समारोह में व्याख्यान देने के लिए बुलाने से पं. नेहरू या भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा में रंचमात्र की भी अभिवृद्धि होनेवाली है बल्कि इसे बेकार की कवायद ही कहा जाना चाहिए। हाँ,यह जरूर संभव है कि आंग सान को बुलाने और सम्मानित करने से मेजबान और आमंत्रणकर्ता सोनिया गांधी का सम्मान देश और विदेशों में बढ़ जाए और लोग उनको भ्रष्टतंत्रवादी के स्थान पर महान और सच्चा लोकतंत्रवादी समझने लगें। मगर क्या ऐसा सचमुच होने जा रहा है?
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