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बिहार में महिला थानों का औचित्य

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,बिहार के लोगों की रचनात्मकता का कहना ही क्या? व्याकरण के दृष्टिकोण से जो शब्द रूढ़ हैं उन्हें भी वे अक्सर यौगिक और कभी-कभी तो योगरूढ़ में बदल देते हैं। अब दरोगा (या दारोगा) शब्द को ही लीजिए हमने इसको भी सीधे योगरूढ़ में बदल दिया है। दरोगा अर्थात् द रो के या गा के यानि इस दोपाया (आदमी या जानवर का निर्णय हम आप पर छोड़ते हैं) के शिकंजे में अगर आप आ गए हैं तो आपको कुछ-न-कुछ पैसा देना ही पड़ेगा चाहे खुश होकर दीजिए या रो पीटकर। ये लोग निश्चित रूप से (यहाँ मैं कथित रूप से लिखना गैरजरूरी समझता हूँ) अपने पिता को भी नहीं छोड़ते हैं। उनको भी अगर कभी पुलिस थाने से कोई काम पड़ जाए और उनका बेटा ही क्यों न दरोगा रहे उनको भी पैसा देना ही पड़ेगा। बाप के लिए कोई कैसे नियम को बिगाड़ या तोड़ सकता है-रूल ईज रूल।
मित्रों, जब भी आप बिहार के किसी थाने में प्रवेश करेंगे बड़े मोटे अक्षरों में कुछ ईबारतें दीवारों पर लिखी हुई मिलेंगी, जैसे-ईमानदारी सर्वश्रेष्ठ नीति होती है, क्या मैं आपकी सहायता कर सकता हूँ इत्यादि। परन्तु ये ईबारतें सिर्फ दिखावे के लिए होती हैं। लिखना जरूरी होता है सो लिख दिया जाता है वैसे कोई इन्हें पढ़ता नहीं। दरोगा जी पढ़ने की जरुरत नहीं समझते और आरोपी य़ा आरोपित पढ़कर क्या करेगा? अगर कभी प्रतिवादस्वरूप किसी ने कह दिया कि हुजूर दीवार पर लिखा तो ऐसा है आपने तो यकीन मानिये उसे सैंकड़ों गालियाँ तो सुनने को मिलेंगी ही हो सकता है कि सरकारी कर्मचारी/अधिकारी पर हाथ उठाने या काम में बाधा डालने के झूठे इल्जाम में तत्काल भीतर भी कर दिया जाए। हो तो यह भी सकता है कि स्पेलिंग मिस्टेक के चलते मुकदमे की धारा ही बदल जाए,जैसे-धारा 107 धारा 307 हो जाए और यहाँ 1 और 3 का फर्क आप भी जानते होंगे।
मित्रों, कई बार आपने देखा होगा कि पुलिस रेलवे स्टेशन,बस स्टैण्ड आदि स्थानों से चोर,पॉकेटमार को गिरफ्तार करके ले जाती है। आपने कभी पता लगाया है कि उनका क्या होता है और क्या किया जाता है? आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि बिहार में 99.99 आवर्त प्रतिशत ऐसे चोर-पॉकेटमार थाना पहुँचने से पहले या पहुँचने के फौरन बाद बाईज्जत छोड़ दिए जाते हैं कदाचित इस हिदायत के साथ कि काम सफाई से करो,कैसे पकड़े गए। हमारे राज्य बिहार में यह पुलिस की ही कृपा है कि राज्य में सुशासन में भी इतने अपराध हो रहे हैं। पुलिस नहीं होती तो शायद अपराध कब के बंद हो चुके होते। सच्चाई यह भी है कि लोगों के बीच जितना आतंक निजी गुंडों का नहीं है उससे कई गुणा ज्यादा वे वर्दीवाले गुंडों से डरते हैं। एक बड़ा ही रोचक चुटकुला हमारे बिहार में वर्षों से प्रचलन में है और कदाचित् हमेशा रहेगा। हुआ यूँ कि एकबार मुम्बई से एक मराठी बिहार आया और मुम्बई पुलिस के बारे में किसी बिहारी को बताने लगा कि मुम्बई में तो अपराध होने के 24 घंटे के भीतर ही पुलिस अपराध करनेवालों का पता लगा लेती है, गजब की फास्ट है मुम्बई पुलिस। तब बिहारी ने बिहार पुलिस का महिमामंडन करते हुए सिर ऊँचा करके और मूँछों पर ताव देते हुए कहा कि ये तो कुछ भी नहीं है हमारे यहाँ की पुलिस को तो अपराध होने के 24 घंटे पहले से ही पता होता है कि कहाँ अपनाध होनेवाला है और उसमें कौन-कौन शामिल होनेवाले हैं।
मित्रों,न जाने कितनी सरकारें बिहार में आईं और गईं, न जाने कितने एसपी,डीएसपी आए और गए परन्तु बिहार के थानों का न तो स्वभाव ही बदला और न तो सूरत ही। ये थाने आजादी से पहले भी रक्त-चूषक केंद्र थे और आज भी हैं। अब आप कहेंगे कि आपने तो पढ़ा है कि बिहार में तो सुशासन बाबू का सुशासन है। सुशासन है, जरूर है लेकिन अभी तक वह थानों का चक्कर ही लगा रहा है बेचारा थानों में घुसने लायक साहस ही नहीं जुटा पाया है। सुशासन बाबू ने जबसे अफसरों की ताकत में ईजाफा किया है तबसे तो जनता की प्रतिनिधि खादी भी थाने में घुसने से डरती है तो फिर सुशासन कहाँ से लाएगा हिम्मत? वैसे भी राज की बात तो यह भी है कि बिहार में इन दिनों न तो सुशासन बाबू का राज है और न ही कानून का बल्कि अफसरों का राज है। अफसर जो कहें वही कानून है और वे जो करें वही कानून का पालन है। उदाहरण के लिए अगर किसी थाने में थानेदार किसी महिला के साथ बलात्कार कर रहा है तो यह माना जाना चाहिए कि उसने ऐसा करके बलात्कारियों से उक्त महिला की रक्षा की है।
मित्रों, पहले से ही पुलिस थाने बिहार की गरीब जनता की आहिस्ता-आहिस्ता खाल उतारने में तन्मयता से लगी हुई थी परन्तु नीतीश जी का दिल तो बहुत बड़ा है और हमेशा मोर एंड मोर मांगता रहता है सो जनाब ने जनता को लूटने के अतिरिक्त केंद्र खोलने की न केवल योजना बनाई बल्कि खोल भी डाले। नहीं समझे क्या? जनाब मेरा मतलब महिला थानों से है। महिलाओं की (कदाचित् पत्नी को छोड़कर) विशेष चिंता करनेवाले नीतीश जी ने पूरे बिहार के प्रत्येक जिले में एक-एक महिला थाना खोला है जहाँ महिलाओं से संबंधित मामले दर्ज किए जाएंगे और उनके प्रति होनेवाले अपराधों पर बाजाप्ता अनुसंधान किया जाएगा। इनके खुलने से बिहार की आम महिलाओं को भले ही कोई फायदा नहीं हुआ हो (यकीनन होगा भी नहीं) इन थानों की महिला थानेदारों के घरों में तो छत तोड़कर श्यामा-लक्ष्मी की बरसात हो रही है। ये महिला थानेदार रिश्वत (अथवा रंगदारी) वसूलने में पुरूष-महिला समानता में बिल्कुल भी यकीन नहीं रखती हैं बल्कि इनका तो मानना है कि कम-से-कम इस मामले में तो स्त्रियों को पुरूषों से श्रेष्ठ होना ही चाहिए।
मित्रों, अभी कुछ दिन पहले मेरे दूधवाले …… सिंह जो हाजीपुर के गंगाब्रिज थाने के सहदुल्लापुर के रहनेवाले हैं ने मुझे दूध देना बंद कर दिया। मुझे बड़ी चिंता हो गई क्योंकि जबसे हम महनार से हाजीपुर आए हैं वही हमें दूध दे रहे हैं। मुझे लगा कि कहीं मर-वर तो नहीं गए बेचारे बीमार तो थे ही। सो एक दिन ढूंढ़ते-ढूंढ़ते उनके घर पहुँचा तब पता चला कि कुछ दिन पहले भतीजे और उसकी पत्नी से उनकी हल्की-फुल्की हाथापाई हो गई थी और उनका भतीजा सपत्नीक गंगाब्रिज थाने में मुकदमा करने चला गया। गंगाब्रिज थाने ने उसे समझा-बुझाकर लौटा दिया तो उसने जिला महिला थाना में जाकर केस कर दिया। उन्होंने यानि मेरे दूधवाले ने थानेदारनी को पैसे भी दिए हैं परन्तु थानेदारनी फिर भी दो-चार दिन बीचकर दरवाजे पर पुलिस-गाड़ी खड़ा कर देती है और इस प्रकार पूरा परिवार हाड़तोड़ मेहनत करके जो कुछ कमाता है छीन कर ले जाती है, ऊपर से बहुत कर्ज भी हो गया है। उनका भतीजा भी उनकी ही तरह घोर गरीब है और जाहिर है कि उसका हाल भी कोई अहलदा नहीं है। कैसे करूँ-क्या करूँ समझ में नहीं आ रहा। आप कुछ कर सकते हैं तो बताईये। मैंने सुना और सुनते ही मेरी समझ में भी नहीं आया कि मैं उसके लिए क्या करूँ और कैसे करूँ? आपके पास कोई उपाय हो तो बताईये नहीं तो बेचारे पर जब तक मुकदमा है ऐसे ही सपरिवार खटते-कमाते रहेंगे और भरते रहेंगे गोदान के होरी की तरह। समझ में तो मेरी यह भी नहीं आ रहा है कि क्या इसलिए बिहार में सुशासन बाबू ने महिला थानों की स्थापना की है?

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