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आर्थिक उदारीकरण से फायदे कम नुकसान ज्यादा

ब्रज की दुनिया
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मित्रों,कहते हैं कि सावन के अंधे को चारों तरफ सिर्फ हरियाली-ही-हरियाली नजर आती है लेकिन वैसे आँखवाले को क्या कहा जाए जिसको पतझड़ में भी चारों ओर सिर्फ हरियाली ही दिखाई दे रही है? कोई भी परिवर्तन,किसी भी तरह के बदलाव का एकमात्र पहलू नहीं होता। उसके कुछ अच्छे प्रभाव होते हैं तो आवश्यक रूप से कुछ बुरे परिणाम भी। सन् 1990 ई. में नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार द्वारा मनमोहन सिंह की अगुवाई में शुरू की गई कथित आर्थिक-क्रांति का भी हमारी अर्थव्यवस्था पर मिला-जुला असर ही पड़ा है। लेकिन मनमोहन जी को सिर्फ अच्छाइयाँ ही नजर आ रही हैं दुष्परिणाम मोटा चश्मा पहनने के बावजूद नजर ही नहीं आ रहे हैं। तभी तो पिछले कई दिनों से उनका कार्यालय ट्वीटर पर आर्थिक सुधारों के फायदे गिनाने में लगा है। गूढ़ और उलझाऊ आंकड़ों की बाजीगरी के माध्यम से जनता को गिनती सिखाई और बताई जा रही है। बताया जा रहा है कि पिछले सालों में कितने घरों में बिजली लगी और फोन लगे। कितने लोगों के बैंकों में खाते खुले और कितने लोगों के पास आज मोबाईल या बाईक या कार है। परन्तु मनमोहन जी ने यह नहीं बताया है जबकि बताना चाहिए था कि पिछले सालों में कितनी फैक्टरियाँ या नौकरियाँ चीन को स्थानान्तरित हो गईं। उन्होंने यह भी नहीं बताया है कि आजकल भारत का औद्योगिक विकास-दर शून्य प्रतिशत या उससे भी नीचे पहुँच गया है। उन्होंने यह जानकारी भी नहीं दी कि निजी कंपनियों पर नजर रखने के लिए स्थापित ट्राई जैसी रेग्यूलेटिंग एजेंसियों के अस्तित्व में होते हुए भी 2-जी घोटाले में पौने दो लाख करोड़ रुपये की राजस्व-क्षति कैसे संभव हो गई। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि 1990 के बाद हमारे सामाजिक मूल्यों में तेज गिरावट क्यों आई है और पैसा ही भगवान कैसे बन गया है।
मित्रों,आर्थिक-क्रांति या संचार-क्रांति के आरंभ में ऐसे दावे किए जा रहे थे कि इससे शासन-प्रशासन में पारदर्शिता बढ़ेगी। कहाँ है आज वह पारदर्शिता? इसी प्रकार यह दावा भी किया जा रहा था कि सबकुछ बाजार के हाथों में सौंप देने से गरीबी समाप्त हो जाएगी और सबकुछ सही हो जाएगा। क्यों नहीं हुआ ऐसा जबकि सबकुछ तो नहीं पर बहुत कुछ का नियामक आज बाजार है ? साथ ही सरकारी कामकाज के संचार-क्रांति के कारण त्वरित होने के दावे भी किए जा रहे थे फिर लेटलतीफी पिछले दशकों में घटने के बजाए बढ़ती ही क्यों गई है? क्यों आज के कम्प्यूटर-युग में भी न्यायतंत्र विलंबकारी ही बना हुआ है? मैं मानता हूँ कि लोगों को फोन मिले और बिजली मिली। परन्तु दूरसंचार-कंपनियों ने लोगों को लूटा भी कम नहीं है। गाहे-बेगाहे बिना उपभोक्ता की जानकारी के ही विभिन्न सेवाएँ उसके नंबर पर सक्रिय कर दी जाती हैं और मनमाने पैसे काट लिए जाते हैं। इसी प्रकार क्यों आज बिजली-कंपनियों को कोयला-घोटाला के द्वारा मुफ्त में कोयला मिलने के बावजूद बिजली काफी महंगी है और गुणवत्ताहीन ही है।
मित्रों,पिछले बीस सालों में हमारी धरती के गर्भ से बड़ी भारी मात्रा में अवैध खुदाई कर खनिज-अयस्क निकाले गए हैं। कर्नाटक,आंध्र प्रदेश से लेकर झारखंड तक में देशी-विदेशी पूंजीपतियों ने हमारे प्राकृतिक-संसाधनों की अंधाधुंध लूट की है। विदेशी पूंजी-निवेश भी हुआ है लेकिन उद्योग अथवा विनिर्माण के क्षेत्र में कम और आधारभूत-संरचना के क्षेत्र में तो बिल्कुल भी नहीं। शायद यही कारण है कि आधारभूत-संरचना के क्षेत्र में और कुल जीडीपी के मामले में भी हम पड़ोसी चीन से काफी पीछे छूट गए हैं। हमारे यहाँ ज्यादातर विदेशी पैसा सेवा-क्षेत्र में आया है जबकि इस क्षेत्र में रोजगार-सृजन के अवसर विनिर्माण की तुलना में काफी कम और न के बराबर होते हैं। मनमोहन जी यह भी नहीं बता रहे हैं कि विदेशी-पूंजी से कितने लोगों को रोजगार मिला। मैं बताता हूं कि वे क्यों नहीं बता रहे हैं क्योंकि हमारा पूरा विकास और जीडीपी की सरपट दौड़ पिछले 20 सालों में लगभग रोजगार-रहित हुई है।
मित्रों,विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय 1995 ई. में दावा किया गया था कि भविष्य में पूंजी के अबाध वैश्विक प्रवाह के साथ-साथ श्रम का भी दुनिया में निर्बाध रूप से प्रवाह होगा। क्यों ऐसा संभव नहीं हुआ? विदेशी पूंजी तो भारत में आई और भारी कमाई भी कर ली लेकिन क्या हमारे श्रमिक अमेरिका और यूरोप उतनी ही उन्मुक्तता के साथ जा सके? नहीं कदापि नहीं!! आज भी सारे विकसित देशों में हमारे श्रमिकों के कोटा निर्धारित है जबकि हमने तो कोकाकोला और पेप्सी कोला जैसी कंपनियों के पूंजी-निवेश और लाभ कमाने की कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। ऐसा क्यों हुआ और क्यों हो रहा है? क्या यह हमारा आर्थिक औपनिवेशीकरण नहीं है? हम पहले भी उपभोक्ता थे और आज भी उपभोक्ता हैं। हम पहले भी बाजार थे और आज भी बाजार हैं। आज भी हमारा आयात काफी ज्यादा है और निर्यात काफी कम। फिर यह किस तरह की आर्थिक-क्रांति है और किस तरह से आर्थिक-क्रांति है? जब हमारी अर्थव्यवस्था के मौलिक चरित्र पर,स्वरूप पर और संरचना पर आर्थिक-सुधारों का कोई सद्प्रभाव नहीं पड़ा तब फिर ऐसे आर्थिक-सुधारों का क्या लाभ? क्या लगातार बढ़ती गरीबी,बेरोजगारी और प्राणघातक मुद्रा-स्फीति को हम किसी भी प्रकार से अपनी उपलब्धि मान सकते हैं? क्या इस तथ्य को हम अपनी उपलब्धि के रूप में गिना सकते हैं कि आज भी हमारी जनसंख्या का 80 प्रतिशत भाग मात्र 20 रू. प्रतिदिन या उससे भी कम में अपने दिन काटने के लिए मजबूर है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनरेगा जैसी योजनाएँ गरीबी भगाने का होमियोपैथिक इलाज नहीं हैं बल्कि एलोपैथिक इलाज हैं,तात्कालिक या अल्पकालिक या अस्थायी उपाय। यह इलाज भी किंचित असर तभी करेगा जब इसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। लेकिन हमने अपने खुद के पंचायत गोरीगामा (महनार प्रखंड) में ही पाया है कि मनरेगा के लाभार्थियों की सूची में दर्जनों ऐसे लोगों के नाम दर्ज हैं जो सरकारी नौकरियों में हैं। साथ ही मनरेगा के अंतर्गत कहीं भी ऐसा कार्य नहीं करवाया जा रहा है जिससे स्थानीय मजदूरों के लिए गांवों में स्थायी आमदनी का रास्ता बनता हो या खुलता हो।
मित्रों,विनिर्माण के साथ-साथ कृषि की स्थिति भी पिछले 2 दशकों में बिगड़ी ही है,खराब ही हुई है। लाखों किसानों ने इस दौरान हानि उठाकर आत्महत्या की है और कृषि विकास-दर 2 प्रतिशत के आसपास रेंगता रहा है। आज खेती घाटे का व्यवसाय बन चुका है और इसे घाटे का सौदा बनाया है हमारी नई आर्थिक नीतियों ने। हमने खाद पर सब्सिडी कम कर दी है या फिर समाप्त ही कर दिया है और रासायनिक-उर्वरकों की कीमतों को बाजार के हवाले कर दिया है। इतना ही नहीं कभी सेज के नाम पर तो कभी दिल्ली-आगरा यमुना एक्सप्रेस वे के नाम पर किसानों से जमीन अंग्रेजों के जमाने के काले कानूनों की सहायता से जबर्दस्ती कौड़ी के भाव में छीनी जा रही है। अब यमुना एक्सप्रेस वे को ही लीजिए कितना भद्दा मजाक है यह हम गरीब भारतीयों के साथ!? इस सड़क से गुजरने पर गाड़ी-मालिकों को जेपी कंपनी को 300 रु. की मोटी रकम अदा करनी पड़ेगी जितने में ट्रेन से कोई चाहे तो हजार किलोमीटर की यात्रा कर सकता है। फायदा सिर्फ निजी कंपनियों और नेताओं-अफसरों को और नुकसान सिर्फ किसानों और श्रमिकों को। किसी साल ज्यादा अच्छी फसल हो गई तो एक तरफ जहाँ भारतीय खाद्य निगम के सामने उसके भंडारण की समस्या खड़ी हो जाती है वहीं दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सालोंसाल गोदामों में ही सड़ जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट जब इसको गरीबों में बांटने को कहता है तो सरकार सीधे मना कर देती है और वही अनाज वो शराब-कंपनियों के हाथों औने-पौने दाम पर बेच देती है। भारतीय श्रमिकों की स्थिति पर हम अपने पिछले आलेखों में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं।
मित्रों,कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि नई आर्थिक नीतियों से हमें जितना लाभ होना चाहिए था,नहीं हुआ और नुकसान थोक में हुआ। लाभ अगर 4 आना हुआ तो नुकसान 12 आने का हुआ। अगर हमने अपने पड़ोसी चीन की तरह सतर्कता बरती होती और लूट को रोका होता तो आज हम जरूर उसके हमकदम या बगलगीर होते। दरअसल हमारे (अर्थ)व्यवस्थारूपी बर्तन में शुरू से ही इतने छिद्र थे और हैं कि सारा लाभ उनमें से बहकर घोटालेबाजों के बैंक-खातों में पहुँच गया और बर्बाद हो गया। हमारी सरकार ने अर्थव्यवस्थारूपी दूध की सारी मलाई तो अपने बीच और अपनों के बीच जिसमें पूंजीपति भी शामिल हैं,बाँट दिया और जनता को या तो सिर्फ खुरचन थमा दी या फिर अंगूठा दिखा दिया। उदाहरण के लिए आम आदमी को मिलनेवाली सब्सिडी में विगत वर्षों में लगातार कमी की गई है और अब वह समाप्त होने के कगार पर आ गई है जबकि पूंजीपतियों को अभी भी हजारों करोड़ रुपयों की करछूट दी जा रही है। दरअसल पिछले 2 दशकों में भारतीय लोकतंत्र विकृत होकर भ्रष्टतंत्र और धनिक तंत्र में बदल गया है। नई आर्थिक नीतियाँ सैद्धांतिक रूप से गलत नहीं थीं। गलत होतीं तो चीन आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति नहीं होता लेकिन उनके क्रियान्वयन में सिर्फ दोष-ही-दोष थे और वे गुणात्मक और मात्रात्मक रूप से उत्तरोत्तर बढ़ते ही चले गए और बढ़ते ही चले जा रहे हैं।

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