Menu
blogid : 1147 postid : 91

ऑनेस्टी इज द वर्स्ट पॉलिसी

ब्रज की दुनिया
ब्रज की दुनिया
  • 707 Posts
  • 1276 Comments

मैं बचपन से ही किताबों में और कई बार सरकारी कार्यालयों के दफ्तरों की दीवारों पर पढता आ रहा हूँ कि ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी.मैंने सिर्फ इस सिद्धांतवादी वाक्य को पढ़ा ही नहीं है भोगा भी है, जिया भी है.दरअसल मेरे पिताजी नितांत ईमानदार व्यक्ति हैं.वे अब कॉलेज प्रिंसिपल के पद से रिटायर हो चुके हैं.अपनी ३४ साल की नौकरी के दौरान उन्होंने कभी गलत तरीके से पैसा नहीं कमाया.मुफ्त में बच्चों को गेस पेपर और नोट्स देना उनकी ड्यूटी का हिस्सा थे.उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं पढाया.छात्र आज भी उनका आदर करते हैं.लेकिन जिंदगी अच्छी तरह चलाने के लिए सिर्फ सम्मान ही काफी नहीं होता.कभी गांधी ने भी देश के प्रति समर्पित होने और परिवार पर ध्यान न देने की कीमत चुकाई थी.इस विषय पर यानी पुत्र हरिलाल गांधी और गांधी के बीच के तनावपूर्ण संबंधों पर हाल ही में एक फिल्म भी आई थी जिसमें मुख्य भूमिका में अक्षय खन्ना थे.पिताजी पर दूसरी बात लागू नहीं होती.उन्होंने हमेशा हमारा ख्याल रखा शायद खुद से भी ज्यादा.लेकिन जब पूरा समाज बेईमान हो जाए तो एक ईमानदार के परिवार को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.हमें भी करना पड़ा.बचपन की एक घटना मुझे याद आती है.मेरे मौसा परिवार सहित हमारे पास आये हुए थे.मेरे मौसा जिला मत्स्य पदाधिकारी थे और उनकी ऊपरी आमदनी लाखों में थी.उन्होंने मेरे हमउम्र मौसेरे भाई को एक खिलौना बन्दूक खरीद दी.मैं घर आकर रोने लगा लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि बन्दूक खरीद सकते.बाद में हम गाँव से शहर आ गए और १९९२ से अब तक किराये के मकान में रह रहे हैं.एक जमीन भी पिताजी ने ली लेकिन गाँव के ही एक चाचा ने धोखा दिया और रास्ते की तरफ से जमीन दिखा कर पीछे से लिखवा दिया और हजारों रूपये की भी दलाली खा गए.नतीजा रजिस्ट्री के ५ साल बाद भी जमीन में रास्ता नहीं है और हम अब दूसरी जमीन खोज रहे हैं.पिछले १८ सालों में हमने न जाने कितने डेरे बदले, मोहल्ले बदले, पड़ोसी बदले.होता यह है कि साल-दो-साल रखने के बाद मकान मालिक को हम घाटे का सौदा लगने लगते हैं क्योंकि नया किरायेदार ज्यादा पैसे देने को तैयार होता है.कुछेक महीने प्रताड़ना झेलने के बाद हम आशियाना बदल देते हैं और चल देते हैं ईमानदारी की लाश को कन्धों पर उठाये नए मकान मालिक की शरण में.आज भी मैं साईकिल की सवारी करता हूँ जबकि गाँव में मेरे खेतों में काम करनेवालों के पास भी मोटरसाईकिल है.शहर में मेरे मकान मालिक मास्टर से लेकर चपरासी तक रहे हैं.उन्होंने किस तरह शहर में घर बनाने के लिए पैसों का जुगाड़ किया आप आसानी से समझ सकते हैं.अगर वे भी मेरे पिताजी की तरह ईमानदार होते हो उनका भी अपना घर नहीं होता.मैंने कभी घूस देकर नौकरी लेने के बारे नहीं सोंचा क्योंकि ईमानदारी मेरे खून में थी.इसलिए सरकारी नौकरी नहीं हुई हालांकि पढाई में मैं किसी से कमजोर नहीं रहा लेकिन न जाने क्यों किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में अंतिम रूप से  सफल नहीं हो सका.प्रेस में आया तो यहाँ बुजदिलों का जमावड़ा देखने को मिला.ज्यादा दिनों तक उन्हें झेल नहीं पाया और बाहर आ गया.अब लड़की वाले आते हैं तो पाते हैं कि लड़का बेरोजगार है और बेघर भी.देखते ही वे उल्टे पांव लौट जाते हैं.जाहिर-सी बात है कि मैं अब तक कुंवारा हूँ.भले ही मुझे और मेरे परिवार को पिताजी की ईमानदारी के चलते गम-ही-गम झेलने पड़े हों फ़िर भी मैं भी ताउम्र ईमानदारों की ज़िन्दगी जियूँगा.शायद मेरी होनेवाली पत्नी मेरा साथ न भी निभाए लेकिन फ़िर भी मैं ईमानदार हूँ और ईमानदार रहूँगा.ईमानदारी मेरे खून में तो है ही लेकिन मुझे इसके चलते मिलने वाले दुखों से भी प्यार हो गया है.बेईन्तहा प्यार.कभी अब्राहम लिंकन ने कहा था कि गलत तरीके से सफल होने के बदले मैं सही रास्ते पर रहकर असफल होना ज्यादा बेहतर मानता हूँ.मेरे पिताजी भी ऐसा ही मानते थे और अब मैं भी ऐसा ही मानता हूँ.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh