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मुस्लिम तुष्टिकरण:खतरनाक प्रवृत्ति

ब्रज की दुनिया
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जर्मनी में अराजकता की स्थिति थी.राष्ट्रवादी से लेकर साम्यवादी तक सभी देश में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील थे.इसी बीच सामने आया हिटलर जो साम्यवाद का घोर विरोधी था.अपने भाषणों में वह साम्यवाद के पूरी दुनिया से विनाश की बातें करता था.इंग्लैंड-फ़्रांस सहित सभी पूंजीवादी देश जर्मनी में साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे.उन्हें लगा कि अगर हिटलर का समर्थन किया जाए तो जर्मनी में साम्यवाद के बढ़ते कदम को रोका जा सकता है.इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री आर्थर नेविल्ले चम्बेर्लें  की तुष्टिकरण की नीति का परिणाम यह हुआ कि हिटलर जर्मनी का तानशाह  बन बैठा और दुनिया को जीतने के सपने देखने लगा.उस समय इंग्लैंड ही सबसे बड़ी महाशक्ति था.इंग्लैंड ही नहीं पूरी दुनिया को तुष्टिकरण की इस नीति की कीमत चुकानी पड़ी और द्वितीय विश्वयुद्ध में करोड़ों लोगों को अपने जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा.बाद में १९७९ में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर कब्ज़ा जमा लिया तब अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से इस्लामी चरमपंथ को बढ़ावा दिया.पाकिस्तान ने अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में किया.भारत बार-बार अमेरिका को आगाह करता रहा लेकिन तुष्टिकरण की नीति की सबसे बड़ी कमजोरी ही यही होती है कि वह दूसरे पक्ष की मानवता-विरोधी गतिविधियों को नजरंदाज कर देता है और सिर्फ अपने लक्ष्य से मतलब रखता है.११ सितम्बर के हमले के बाद अमेरिका को अपनी गलतियों का अहसास हुआ और उसने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया.कुछ इसी तरह की नीति कांग्रेस समेत सभी छद्म-धर्मनिरपेक्षवादी दलों की भारत में रही है.कांग्रेस आजादी के बाद से ही मुस्लिम वोटबैंक को खुश रखने  के लिए तुष्टिकरण की नीति का पोषक रहा है.इसी नीति के तहत अतीत में कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया, आज तक समान सिविल संहिता लागू नहीं होने दी गई.कांग्रेस बहुत जल्द भूल गई कि उसकी इसी तरह की गलत नीतियों के कारण मुस्लिम अलगाववाद को बढ़ावा मिला परिणामस्वरूप देश भी बँट गया.जब भी किसी आतंकी घटना में किसी भारतीय मुस्लिम का नाम आता है तो कांग्रेस पार्टी की वर्तमान केंद्र सरकार तटस्थ होकर उनके खिलाफ कदम नहीं उठा पाती.उसे डर लगता है कि कहीं कार्रवाई करने से मुसलमान नाराज न हो जाएँ.बटाला हाउस मुठभेड़ के बाद कांग्रेसी सरकार और पार्टी नेताओं के आचरण पर तो सिर्फ शर्मिंदा हुआ जा सकता है.इन नेताओं के लिए देश का अब  कोई महत्व नहीं रह गया है और उनका तो बस एक ही मूलमंत्र है-कुर्सी नाम परमेश्वर.अब कांग्रेस समेत सभी कथित धर्मनिरपेक्षतावादी मुसलमानों को आरक्षण देने को व्याकुल हुए जा रहे हैं जबकि हमारा संविधान धर्म-संप्रदाय के आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण का निषेध करता है.लेकिन हमारे नेता और दल  तो वोटबैंक के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं.यह वोटबैंक की राजनीति का ही परिणाम है कि जेहादी आतंकवाद का सबसे बुरा शिकार होने के बावजूद भारत आतंकवाद पर सांघातिक प्रहार नहीं कर पा रहा है.मुसलमानों को आरक्षण किस आधार पर दिया जाए?क्या बहुसंख्यक हिन्दू उनके पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार है?यह संप्रदाय अति रूढ़िवादी है और यही इसके पिछड़ेपन का कारण भी है.क्या हिन्दू जिम्मेदार हैं इनके लकीर का फकीर होने के लिए? फ़िर हिन्दू क्यों चुकाए इनके पिछड़ेपन की कीमत?अभी जिन जातियों को आरक्षण दिया जा रहा है वह सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया जा रहा है.लेकिन मुसलमान तो सामाजिक रूप से पिछड़े हैं नहीं.पिछड़े मुस्लिमों को पहले से ही आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है.फ़िर अगड़े मुसलमानों को आरक्षण का कोई वैध आधार तो बनता नहीं और अगर उन्हें आरक्षण दिया जाए तो फ़िर अगड़े हिन्दुओं ने कौन सा अपराध किया है जो उन्हें इसी आधार यानी आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाए.सभी धर्मनिरपेक्षतावादी दल जितनी जल्दी हो सके अपनी नीतियाँ बदल लें अन्यथा देश फ़िर से बंटवारे की तरह अग्रसर हो जायेगा.देशहित सबसे ऊपर है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण कभी देशहित में नहीं रहा है यह हमारे देश के इतिहास से भी स्पष्ट है.संप्रदायनिरपेक्ष होकर आतंकवाद पर मरणान्तक प्रहार किया जाए.मदरसों का आधुनिकीकरण किया जाए, मुस्लिमों की सोंच को आधुनिक बनाया जाए आरक्षण देने की तो कोई जरूरत ही नहीं है.समान सिविल संहिता को कश्मीर समेत पूरे देश में लागू किया जाए क्योंकि इससे देश मजबूत होगा.हो सकता है कि कुछ लोग इन कदमों का विरोध भी करें लेकिन मैं पूछता हूँ कि तुर्की में क्या अता तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा का विरोध नहीं हुआ था?अगर पाशा विरोध से घबरा जाता तो तुर्की का आधुनिकीकरण संभव नहीं हो पाता और वह विकसित देशों की जमात में शामिल नहीं हो पाता.भारत को भी तो विकसित देशों के क्लब में शामिल होना है.

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